Thursday, March 30, 2017

चाँद और रोटी

गरीब का बच्चा जब
भूख से बिलख कर
सो जाता है,
तो चाँद बन जाता है रोटी,
जिसे निगल लेता है वह
गालों पे सूख चुके
आंसुओं के साथ.

तभी तो निकलता है चाँद,
कि कोई बच्चा भूखा न रहे,
और हमें दिखता है,
आसमान में,
कुतरा हुआ चाँद.

शायद निगल लेते होंगे वे नींद में,
जब तक कि ख़त्म ह हो जाए,
या छिपा लेते होंगे,
छोटा-सा टुकड़ा,
अपनी फटी जेब में,
कल के लिए.

और, जब हो जाता होगा ख़त्म,
सारे बच्चे भूखे ही रह जाते होंगे,
दिन में भी,
और रात में भी.
फिर कोई बालक उछाल देता होगा
आसमान में,
अपने हिस्से का चाँद,
कि कोई बच्चा कम से कम
ख्वाब में भूख न रह जाए.

Wednesday, March 29, 2017

रोना

हृदय में गहरे अंदर से,
नैनों  के बन्द समंदर से,
इक दरिया-सा बहता है.

इक तूफानी दरिया-सा....

जब ज़ार -ज़ार रोता है मन,
और ज्वार उठे जब अंतर्मन,
एक बाँध बनाने की खातिर,
हम पलकें बन्द कर लेते हैं,
हम बाँध बांधना चाहते हैं,
पलकों की इन कोरों पे,
तूफ़ान थामना चाहते हैं,
नैनों के बंद कटोरो में.

किन्तु जब लहरें उठती हैं,
नागिन-सी हम को डसती हैं,
सीना भारी हो जाता है,
साहिल तलाशती हारी-सी,
मन-नैया डगमग करती है.

हम साहिल पे ले जाने की
हर संभव कोशिश करते हैं,
मुस्कान ओढ़ के चेहरे पे,
संयम पतवार चलाते हैं,
किन्तु उस बहते दरिया में,
हम डूब-डूब ही जाते हैं.

ये बाँध नहीं रुक पाता है,
तूफ़ान नहीं थम पाता है,
और तोड़ के सारी सीमाएं,
बस फिर दरिया ये बहता है,

इक  तूफानी दरिया-सा.....

Monday, March 27, 2017

मज़दूर

मज़दूर कह,
मेरा यूँ तिरस्कार न करो.
मैं  निर्माता हूँ,
इन सड़कों का,
नहरों का, पुलों का,
स्कूलों, अस्पतालों का,
इन गगनचुम्बी इमारतों का.

रवितपिश से
स्याह हुई देह से
सुनहरे श्रमकणों के
स्रोत फूटते हैं,
और सींचते हैं
इन इमारतों को,
पुलों को, नहरों को,
जब तक कि ये फलदार न हो जाएँ,
-तुम्हारी खातिर।

मुझे वर्जित हैं वे फल,
मैं नहीं चखता,
नहीं जानता उनके स्वाद,
क्योंकि -
मैं तो निर्माता हूँ -
जानता हूँ केवल
निर्माण करना.

अपनी फटी जेब में
संतोष का छोटा-सा टुकड़ा छुपाये,
अपने मुरझाये सपनों की नींव पर,
रख देता हूँ,
तुम्हारे अनंत अरमानों का गट्ठर,
देता हूँ आकार,
तुम्हारे ख़्वाबों को,
और चाहता हूँ तुमसे,
बस पेट-भर रोटी,
और ज़रा-सा सम्मान.

Sunday, March 26, 2017

कभी मायूस होता हूँ,
कभी जुगनू चमकता है,
तुम्हारी याद में हर पल,
हृदय मेरा तड़पता है.
तू मुझको भूल भी जाए,
ये मुमकिन हो कहीं शायद,
मेरे सीने में तो जो है,
तेरा ही दिल धड़कता है.

Saturday, March 25, 2017

आज फिर हुई वांछा,
डैने पसार
दूर तक विचर आऊँ ,
अनंत शून्य में,
किसी पखेरू की मानिंद,
बगैर किसी मंज़िल की
बंदिश के.

मंज़िल का होना,
क्या अनिवार्य है,
जीवन के अस्तित्व की खातिर?

एक उलझी-सी पथरीली राह पर
पहला पग धरते ही,
दृष्टि गंतव्य पर टिका,
चल पड़ते हैं हम बेतहाशा,
और नहीं निहार पाते राह में-
    -वृक्ष पर चढ़ती गिलहरी,
    जंगली कुसुम पर मचलता मधुकर,
    रंगों से अटा आसमान.
नहीं श्रवण कर पाते -
    कोयल और पपीहे की सरगम,
    निर्झर की कल-कल,
    पावस की टिप-टिप.
नहीं आभास कर पाते-
    समीर का मुख पर हौले से स्पर्श,
    अरुण का ताप....
कितना कुछ चूक जाते हैं हम,
वंचित रह जाते हैं
सही मायने में जीवन जीने से,
ताकि अविलंब पहुंच सकें
मुकाम पर.

और वहां पहुँचते ही,
फिर तलाशने लगते हैं,
एक और मंज़िल.